बिमल सहगल
आई एफ एस (सेवानिवृत्त), बिमल सहगल कॉलेज के दिनों से ही लेखन के प्रति रुझान होने से १९७३ में छात्र संवाददाता के रूप में दिल्ली प्रेस ग्रुप ऑफ पब्लिकेशन्स से जुड़े। कॉलेज और विदेश मंत्रालय में संस्थानिक पत्रिकाओं का सम्पादन भी किया। अख़बारों और पत्रिकाओं के साथ लगभग 50 वर्षों के जुड़ाव के साथ, उन्होंने भारत और विदेशों में प्रमुख प्रकाशन गृहों में योगदान दिया और भारत व विदेशों में उनकी कई सैकड़ों रचनाएँ प्रकाशित हुईं। वर्ष २०१४ से २०१७ तक उन्होंने अन्तर्राष्ट्रिय अंग्रेजी अख़बार ओमान ऑब्जर्वर के लिए एक साप्ताहिक कॉलम लिखा। काव्य संग्रह प्रकाशनाधीन। लेखन के इलावा पेंटिंग व शिल्पकारी में भी रुचि रखते हैं। एक अनूठी शिल्पकला ‘फ़्लोरल-फ़ौना’ के प्रचलन के लिए भी जाने जाते हैं।
न दुख अपने, न सुख पराए
दूर खड़ा दुख,
परायों की टेक लगाए
मासूम सा दिखता है
बहुत कुछ सुख जैसा ही
जब तक कि पास आकर
अपना निर्मम रूप
ख़ुद से न वह दर्शाए।
ज़रूरी नहीं,
चुंबकीय ध्रुवों की तरह
रूठे ही रहें एक-दूसरे से सदैव,
और मिलने से रहें कतराते;
विरोधी होते हुए भी मगर
दुख और सुख
चुनौतीपूर्ण परिस्थितियों में
मिल लेते हैं सौहार्दवश
अकेले में अक्सर
जीवन की विषमताओं से किए
व्यक्तिगत समझौतों को बखूबी निभाते।
सच ही सुना है, यह कि
दुख की आंच में तप कर
सुख के रूप में निखार आता है
और तभी तो बहुधा
पारस्परिक व्यवहार की दरकार में
दुखों को भी छिपाए रखता है यह
अपनी आड़ में।