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दिया बत्रा

दिया हिमाचल प्रदेश में रहती हैं और भारतीय हिमालयी क्षेत्र में कचरा प्रबंधन पर एक एनजीओ के साथ काम करती हैं। वह हिंदी और अंग्रेज़ी में कविताएँ और गद्य लिखती हैं। उन्हें सरायकी/मुलतानी भाषा और साहित्य में रुचि है, जो पाकिस्तान के पंजाब के दक्षिण-पश्चिमी क्षेत्र में बोली जाती है, और हिंदुस्तान में अप्रचलित होती जा रही है। वह इसे अपने लेख में इस्तेमाल करने की कोशिश करती हैं, क्योंकि यह उनके परिवार की बोली है जो विभाजन के बाद हिंदुस्तान आए थे। 

जंगल की ओर

ना तो आज बच्चे मिट्टी पलीत कर रहे थे,

ना ही उनकी माताएं समय।


आज हवा में हुमस थी, मौसम साफ़ नहीं था।

ना किसी के आने का संकेत था, ना कुछ बिगड़ने का अंदेशा।


रबड़ के जूते पहनने से आप सूखी चीड़ की पतियों पर

फिसलना बंद नहीं कर सकते।


रबड़ के पयियों को चलाने वाले और जूते पहनने वाले इंसान में फ़र्क है।


कल, हमने एक कठफोड़वे को सूखे पेड़ पर ऊपर चढ़ते देखा था।

आज एक जोड़ा जंगली मुर्गियों का और दूसरा जोड़ा कस्तूरों का

ज़मीन पर दान चुग रहा था।


और मैं, एक घुमावदार पेड़ की शाखा खोज रही थी ताकि

उस पर सहारा ले सकूं। और कहीं पास में पेड़ काटने वाली

मशीन की भयानक आवाज़ जंगल के माहौल को

क्रूरता से भर देती है। 

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