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मयंक मिश्रा

मयंक मिश्रा अभी भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान कानपुर से दर्शन-शास्त्र के शोध छात्र हैं । इनका शोध मन और शरीर के संबंध को समझने में रुचि रखता है किंतु इनकी अन्य रुचियों में कविता, इतिहास, संगीत के साथ अन्य कई विषय शामिल हैं। 

ख़्वाब और मैं

वो जो मुट्ठी में रेत से ख़्वाब लिए जाते हैं मैंने उनसे कुछ ख़्वाब चुरायें हैं।


ये मेरे ख़्वाब नहीं, ये मेरी आवाज़ नहीं, ना ये कलम मेरी है और ना ही ये काग़ज।


मुझसे जब वो सब छीन लेंगे तब मेरी आँखों से गिरने वाले आंसू मेरे नहीं। 


चीखें तो मेरी होती हैं, पर वो ग़ुस्सा मेरा नहीं।


अपनी आँखों में वो जो ख़्वाब मैंने मोती से सजायें हैं वो ख़्वाब मेरे नहीं।


मैंने देखे कुछ लोग, वो रेतीले ख़्वाब अपनी मुट्ठी में दबाये, भागे जाते थे। 


मैंने ये ख़्वाब उनसे चुराये हैं। जो कोई पूछे इनकी खबर तो मैं इन्हें अपना बताता हूँ।


मगर अपनी जान के सिवा मेरा अपना कुछ भी नहीं। 


शायद ये रूह मेरी है, मगर जिस्म मेरा नहीं, पर शायद ये रूह भी नहीं।


ये आवाज़, ये ख़्वाब, ये रूह, ये बातें, ये जिस्म, जब मेरा कुछ भी नहीं तो मैं कौन हूँ? 


क्या हूँ?   

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